Sunday, October 06, 2013

एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक सुलझी डोर से दिखते रहे
एक उलझी सी कहानी बन गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

हाथ बढ़ते ज़िन्दगी छूने लिए
पर सहमते, रास्तों के मोड़ पर
ठिठकते पग ख्वाब की दहलीज पर
दो कदम आगे बढ़े, फिर मुड़ गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक अंतर में धधकती आग थी
ज़िन्दगी में उलझने की चाह थी
मगर वो किरदार जो अपना लगे
दास्ताँ में खोजते ही रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक मुझमें ही कोई था अजनबी
कभी अपना था, पराया था कभी
कभी मिलता, फिर चला जाता कहीं
खुद को उसमें ढूंढते ही रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

इक कहानी जो सुनानी थी हमें
अपनी ख़ामोशी के खंडहर में कहीं
ज़िन्दगी के हाशिये पर, लफ्ज़ कुछ
बनके बस आधी लकीरें रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

जानता मुझमें खुदा, हैवान भी
ज़िन्दगी की सांस भी, शमशान भी
महज़ इक कतरा मैं, औ’ ये कायनात
इसमें हम बहते रहे, बहते गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

1 comment:

rajeevsnchopra said...

sir, you expressed life thought very effectively, very good lines Sir